Monday, November 21, 2011

शीर्षक की तलाश जारी है...

यह हिंदी में लिखने का पिछले कई सालों में मेरा पहला प्रयास है, अतः अगर गलतियाँ हों तो उनके लिए मैं पहले ही क्षमा मांगता हूँ.

सामान्यतः मेरे दिन काफी आराम से एक एयर-कनडीशन्ड कमरे में व्यतीत होता है और मैं जिन लोगों से बातचीत करता हूँ वो ज्यादातर या तो software engineer होते हैं, लेखक होते हैं अथवा अन्ना के आन्दोलन से जुड़े हुए आन्दोलनकारी होते हैं (और अगर आप इन प्रजातियों से परिचित होंगे, तो आप ये भी जानते होंगे कि इन तीनो में से कोई भी सामान्य इंसानों की श्रेणी में नहीं आते)|

कल का मेरा दिन थोड़ा अलग रहा|
प्रथम तो कल का दिन काफी भाग दौड़ भरा रहा. परन्तु मुख्य बात ये रही कि कल मेरा दिमाग रह रहकर एक ही घटना कि तरफ बार बार मुड़ जा रहा था.
मेरे दिमाग में एक ही वाक्य गूँज रहा था, 'हम जैसों के लिए कोई कुछ नहीं सोचता इस देश में.'

वाकिया बहुत ही सामान्य है जो शायद आपमें से भी कई लोगों के साथ घटा होगा.

मुझे कुछ प्रिंट लेने थे तो मैं तैयार होकर घर से निकला और मेरे घर के पड़ोस में एक साइबर कैफे चलाने वाले ६०-६५ वर्षीय व्यक्ति, जिनका मैं नाम तो नहीं जनता परन्तु मिलता अक्सर हूँ और अंकल कहता हूँ, की दुकान कि तरफ गया. मुझे अंदाजा था कि अब तक अंकल या तो आ चुके होंगे अथवा आ रहे होंगे. मैं अपने घर के सीढ़ियों से उतर कर जब उनकी दुकान कि तरफ मुड़ा तो देखा कि अंकल खड़े होकर एक रिक्शेवाले से झगड़ रहे हैं. यह शायद पहली बार था कि मैंने अंकल को किसी से इस प्रकार बात करते हुए देखा था.

मैं भी जाकर उन २-३ लोगों के साथ खड़ा हो गया जो कि अंकल और रिक्शेवाले के बीच का ये प्रातः कालीन प्रसारण देख रहे थे.
२-४ मिनट का वार्तालाप सुनने के बाद मुझे समझ आया की सारी बहसबाजी रिक्शेवाले द्वारा भाड़े से ५ Rs ज्यादा मांगे जाने को लेकर थी.
अंकल के पास खुले पैसे नहीं थे तो उन्होंने रिक्शेवाले को २० का नोट दिया और रिक्शेवाले से ५ रुपये वापस मांगे परन्तु रिक्शेवाले ने अपनी गरीबी और बढ़ी हुई महंगाई का हवाला देकर ५ रुपये वापस देने से मना कर दिया. अंकल का पारा चढ़ गया और वो आजकल की सामान्य मानसिकता के विपरीत ५ रुपये वापस लेने के लिए रिक्शेवाले से बहस करने लगे.
मेरी उम्मीद के विपरीत रिक्शेवाले ने ज्यादा बहस नहीं करी. जैसे ही उसे लगा की अंकल वाकई में गुस्सा हैं वो तुरंत जाकर बगल की परचून की दुकान से खुले पैसे ले आया और अपने रास्ते चलता बना, अपनी अगली सवारी खोजने. २-४ जो दर्शक थे वो भी अपने अपने काम पर वापस चले गए, बचे मैं और अंकल.

५ रुपये के उस सिक्के को, जो अंकल ने रिक्शेवाले से काफी जद्दोजहद के बाद लिया था, बड़ी शान से अपनी जेब में डाला और चेहरे पर ऐसी विजयी मुस्कान लिए हुए दुकान का शटर ऊपर उठाने लगे जैसे अभी अभी पानीपत की दूसरी लड़ाई जीत कर आ रहे हों. मुझे उम्मीद थी की वो खुद कुछ बोलेंगे परन्तु ऐसा हुआ नहीं. वो दुकान खोलते ही अपने रोज़मर्रा की झाड़ पोंछ में व्यस्त हो गए.

थोड़ी देर में प्रिंटर चालू कर के उन्होंने मुझे जो प्रिंट चाहिए थे वो निकाल के दे दिए. मैंने जब पैसे पूछे तो उन्होंने कहा, 'वही पुराना, ३ रुपये प्रति पेज.' मैं भी न जाने क्या सोच रहा था की मैं बोला, 'क्या अंकल, अब तो सब जगह २ रुपये रेट हो गया है. लक्ष्मी नगर में तो कुछ लोग ६० पैसे पेज के हिसाब से भी निकालते हैं.'
मुझे नहीं पता की मेरे शब्दों में ऐसी क्या चुभन थी, परन्तु अंकल बिलकुल से बिफ़र गए. 'तो जा कर करा लो लक्ष्मी नगर से. यहाँ क्यों आए?' मैं उनकी बात सुनकर थोड़ा विचलित हुआ, परन्तु पहला तो की मैं उनका अक्सरहां का ग्राहक था, दूसरा मुझे प्रिंट लेकर जल्दी निकलना भी था और सबसे बड़ी बात की वो उम्र में मुझसे काफी बड़े थे, इसलिए, मैंने उनसे कोई बहस करने की बजाय चुप रहना बेहतर समझा.
कुछ पलों तक ख़ामोशी रही, सिर्फ प्रिंटर की किर्र- कीं उस ख़ामोशी में सुनाई देती रही. फिर अंकल खुद ही बोले, 'जब मैंने ४ साल पहले ये दुकान चालू की थी तब इसका किराया २५०० रुपये था, आज हर वर्ष १०% के हिसाब से बढ़कर ४५०० रुपये हो गया है, अगली जुलाई में शायद ५००० रुपये हो जाये. जो रिक्शा वाला साल भर पहले १० रुपये में ख़ुशी- ख़ुशी आता था आज १५ में भी नहीं मानता, और आप कहते हो की सब २ रुपये ले रहे हैं. अरे, मेरी दुकान पे तो रेट आज भी वही हैं जो ३ साल पहले थे. मैं अपना घर कैसे चलाऊंगा? आटा, दाल, सब्जी, दूध सबके दाम इतने बढ़ चुके हैं यह तुम्हे पता ही है.' मैंने कोई जवाब नहीं दिया बस हूँ करके सर हिला दिया. अंकल ने आगे कहा, 'अमीरों को तो ज्यादा फर्क पड़ता नहीं महंगाई का और गरीबों के लिए सरकार इतनी साडी योजनायें चलती है. ये तो हम जैसे बीच में फंसे हुए लोग हैं जिनको कोई नहीं पूछता. हम जैसों के लिए कोई कुछ नहीं सोचता इस देश में.'

मैंने कुछ नहीं कहा, उनके पैसे दिए और अपने प्रिंट्स लेकर घर की तरफ चल दिया परन्तु अंकल की भावनाएं उनके अकेले की नहीं हैं. एक बहुत बड़ा तबका है भारत का, एक तबका जिसको 'मिडल क्लास' कहते हैं, कहीं ना कहीं अंकल की आवाज़ उस पूरे मिडल क्लास की आवाज़ है, कहीं ना कहीं अंकल का गुस्सा उस पूरे मिडल क्लास का गुस्सा है, कहीं ना कहीं अंकल की बेचैनी उस पूरे मिडल क्लास की बेचैनी है.

शायद यही वजह रही की जब अन्ना हज़ारे नाम के एक बूढ़े फ़कीर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठा तो उसको इतना समर्थन मिला. यही गुस्सा, यही बेचैनी कहीं न कहीं अन्ना के आन्दोलन में आये हुए लोगों में भी दिखी. बहुत कम लोग अप्रैल में अन्ना को जानते थे. जो जनता जंतर मंतर पर थी वो वहाँ अन्ना के लिए या किसी पार्टी विशेष के विरोध में वहाँ नहीं थी, वो खुद के लिए वहाँ गयी थी.

हालाकि अगस्त में रामलीला मैदान में और उसके पहले तिहाड़ और छत्रसाल स्टेडियम में जो हुआ उसमें जरुर अन्ना के लिए समर्थन भी था और एक पार्टी विशेष के खिलाफ गुस्सा भी. और ये सिर्फ इसलिए नहीं हुआ की अन्ना ने जनता पर कोई जादू कर दिया, उन्होंने बस वो मुद्दा उठाया जो की मेरे और अंकल और उस रिक्शावाले, तीनो की ही ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ है. उनका तरीका भी विरोधी पार्टियों द्वारा सामान्यतः की जाने वाली रैलीयों से भिन्न था. न कोई आगजनी, न तोड़फोड़, न भड़काऊ भाषण. जंतर मंतर या रामलीला मैदान पर एक समाधान की बात हो रही थी, न कि समस्याओं के बारे में बात करके वोट लेने की कोशिश.

हालाकि, सरकार ने जिस तरह से इस आन्दोलन को दबाने, तथा इससे जुड़े लोगों को बदनाम करने कि कोशिश करी, एक बात तो साफ़ हो चुकी है, कि सरकार कि मंशा साफ़ नहीं है. शायद वक़्त आ गया है कि फिर से ऑफिस के बाद मैं अन्ना के आन्दोलन में भागीदारी के लिए वक़्त निकालूँ. शायद वक़्त आ गया है कि मैं ऑफिस में बैठकर भी इस आन्दोलन में जैसे भी संभव हो विअसे अपना योगदान दूँ. शायद वक़्त आ गया है कि एक साल पूरा कर चुके इस आन्दोलन को सही मुकाम पर पहंचाया जाये. शायद इस बार मैं २-४ और लोगों को अपने साथ लेकर भी जाऊंगा. अब वक़्त आ गया है कि मेरे और अंकल जैसे लोग घर या दुकान या ऑफिस में बैठ कर चाय कि चुस्कियां लेते हुए अपने नेतागणों के घोटालों पर चर्चा करने कि बजाय कुछ करें. क्यूंकि मुझे अच्छी तरह ये पता है कि अगर आज अन्ना हार गए, और उनका आन्दोलन दबा दिया गया तो अगले ५० सालों तक इस देश कि युवा पीढ़ी कुछ बोलने कि हिम्मत नहीं करेगी.